दिनांक 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया
जाता है । संविधान सभा वाला तर्क मानने के बावजूद यह तथ्य हमारी समझ से परे है । हिन्दी
वस्तुतः राष्ट्रभाषा होने से पहले मातृभाषा है । हमारी मातृभाषा! अर्थात वह भाषा जो
हम माँ की गोद से ही सहज रूप से व्यवहृत करते हैं । उसके लिए एक दिन नियत करने का सीधा
मतलब है कि वह हमारे व्यवहार की भाषा नहीं है और हम हिन्दी दिवस मनाकर उसे जीवनदान
देने की कोशिश कर रहे हैं । हिन्दी से हमारी बढ़ती हुई दूरी का यह आलम है कि हमने एक
बार हिन्दी वर्णमाला पर एक पुस्तक देखी थी जिसका शीर्षक शायद लेखक ने इसी बढ़ती हुई
दूरी को लक्ष्य करके “इतना तो जानो ” रखा था।
आज प्रारंभी शिक्षा अँग्रेजी माध्यम में प्राप्त करने वाले बच्चे
न तो ठीक प्रकार से अँग्रेजी जान पाते हैं न हिन्दी है। सच तो यह है कि प्राथमिक शिक्षा
का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होनी चाहिए । मातृभाषा में बच्चा सदैव सहज एवं
ऊर्जा से परिपूर्ण महसूस करता है । मातृभाषा से इतर माध्यम होने से शुरुआत से ही बच्चे
में एक बनावटीपन आ जाता है जो सहज विकास में एक अवरोध का काम करता है । हमे अपने बच्चों
को सहज बनाना है न कि मशीन ।
मै अँग्रेजी का विरोधी नहीं हूँ । उसका भी ज्ञान आवश्यक है परंतु
हमारी प्राथमिकता हिन्दी के सम्यक ज्ञान पर होनी चाहिए । भाषा वही उपयुक्त होती है
जिसके वर्ण , शब्द, उच्चारण एवं लिपि में एकरूपता हो।
हिन्दी में क , म और ल जब एक क्रम में लिखा या उच्चारित किया
जाएगा तो वह सदैव कमल के लिए होगा । अँग्रेजी में उच्चारण एवं वर्णविन्यास में साम्य
का अभाव है। एक स्वर के हर जगह भिन्न –भिन्न उच्चारण होते हैं। वस्तुतः यह ध्वन्यात्मक वैज्ञानिकता की कमी के चलते है।
हिन्दी वर्णमाला के सभी वर्गों का एक नियत उत्पत्ति स्थल है।
जैसे क वर्ग के वर्णों यथा क, ख , क, घ इत्यादि की ध्वनि कंठ से निकलती है। हिन्दी के पास उसकी जननी संस्कृत द्वारा
प्रदत्त विशाल व्याकरण , रस , छंद , संधि, समास एवं अलंकार है। इतना ही नहीं देवनागरी के
सभी वर्णों की अनुकृति में मानव शरीर के मूलाधार से सहस्त्रारतक विभिन्न चक्रों के वर्ण और बीज हैं । हमारे ऋषियों ने सूक्ष्म दृष्टि से उन्ही चक्रों
को देख कर वर्णों का निर्धारण किया है । इस प्रकार हिन्दी एक प्राकृतिक तथा विज्ञानसम्मत
भाषा है।