Sunday, September 14, 2014

हिन्दी दिवस

दिनांक 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है । संविधान सभा वाला तर्क मानने के बावजूद यह तथ्य हमारी समझ से परे है । हिन्दी वस्तुतः राष्ट्रभाषा होने से पहले मातृभाषा है । हमारी मातृभाषा! अर्थात वह भाषा जो हम माँ की गोद से ही सहज रूप से व्यवहृत करते हैं । उसके लिए एक दिन नियत करने का सीधा मतलब है कि वह हमारे व्यवहार की भाषा नहीं है और हम हिन्दी दिवस मनाकर उसे जीवनदान देने की कोशिश कर रहे हैं । हिन्दी से हमारी बढ़ती हुई दूरी का यह आलम है कि हमने एक बार हिन्दी वर्णमाला पर एक पुस्तक देखी थी जिसका शीर्षक शायद लेखक ने इसी बढ़ती हुई दूरी को लक्ष्य करके “इतना तो जानो ” रखा था।
आज प्रारंभी शिक्षा अँग्रेजी माध्यम में प्राप्त करने वाले बच्चे न तो ठीक प्रकार से अँग्रेजी जान पाते हैं न हिन्दी है। सच तो यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होनी चाहिए । मातृभाषा में बच्चा सदैव सहज एवं ऊर्जा से परिपूर्ण महसूस करता है । मातृभाषा से इतर माध्यम होने से शुरुआत से ही बच्चे में एक बनावटीपन आ जाता है जो सहज विकास में एक अवरोध का काम करता है । हमे अपने बच्चों को सहज बनाना है न कि मशीन ।
मै अँग्रेजी का विरोधी नहीं हूँ । उसका भी ज्ञान आवश्यक है परंतु हमारी प्राथमिकता हिन्दी के सम्यक ज्ञान पर होनी चाहिए । भाषा वही उपयुक्त होती है जिसके वर्ण , शब्द, उच्चारण एवं लिपि में एकरूपता हो। हिन्दी में क , म और ल जब एक क्रम में लिखा या उच्चारित किया जाएगा तो वह सदैव कमल के लिए होगा । अँग्रेजी में उच्चारण एवं वर्णविन्यास में साम्य का अभाव है। एक स्वर के हर जगह भिन्न –भिन्न उच्चारण होते हैं। वस्तुतः यह  ध्वन्यात्मक वैज्ञानिकता की कमी के चलते है।
हिन्दी वर्णमाला के सभी वर्गों का एक नियत उत्पत्ति स्थल है। जैसे क वर्ग के वर्णों यथा क,,, घ इत्यादि की ध्वनि कंठ से निकलती है। हिन्दी के पास उसकी जननी संस्कृत द्वारा प्रदत्त विशाल व्याकरण , रस , छंद , संधि, समास एवं अलंकार है। इतना ही नहीं देवनागरी के सभी वर्णों की अनुकृति में मानव शरीर के मूलाधार से सहस्त्रारतक विभिन्न चक्रों  के वर्ण और बीज हैं  । हमारे ऋषियों ने सूक्ष्म दृष्टि से उन्ही चक्रों को देख कर वर्णों का निर्धारण किया है । इस प्रकार हिन्दी एक प्राकृतिक तथा विज्ञानसम्मत भाषा है।

Sunday, February 28, 2010

कहते हैं कि भारतबर्ष ऋषियों का देश है.यह भी कहा जाता है कि ऋषियों की सूक्ष्मसत्ता जनजीवन को सदा संरक्षण प्रदान करतीं हैं .इसी क्रम में हमारा निवेदन है कि बाबा रामदेव ने अर्थ ब्यवस्था में सुधार के लिए कुछ सुझाव दिया है जिस पर सरकार को बिचार करना चाहिए तथा लोकहित में उसे लागू किया जाना चाहिए .

Friday, November 20, 2009

देवराहा बाबा

देवराहा बाबा भारत के एक प्रसिद्द संत हुए हैं.उन्होँने अपने विषय में कभी कुछ नहीं बताया.ऐसा कहा जाता है क़ि उनकी आयु 300 से 400 वर्ष के बीच रही है.यह भी कहा जाता है क़ि वह जगतगुरु स्वामी रामानुजाचार्य के शिष्य रहे हैं.स्वामी रामा ने उन्हें an age less saint कहा है.वर्ष 1967 सम्बत 2024 में मैंने प्रथम बार देवरिया जिले के मैलग्राम में कार्तिक पूर्णिमा को उनका दर्शन किया.उसी वर्ष प्रयाग के मेले में मुझे उन्होँने मन्त्र दिया.

Monday, November 2, 2009

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां

२८-२९ अक्टूबर 2009 की रात में अयोध्या में पञ्च-कोषीपरिक्रमा पुनः इस वर्ष किया, इसके पूर्व जब परिक्रमा की थी तो हम सरकारी अधिकारी थे,एकाध बार तो मेले में ही मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात रहे,इस बार हम एक सामान्यआदमी की तरह परिक्रमा- पथ पर चलती हुई अपार भीड़ में बिल्कुल अकेले चल रहे थे,जब साथ कोई हो,कुछ हो तो असंग की स्थिति होती है, प्रातः चार बजे का समय था,परिक्रमा -पथ पर चलते समय रामराम कहने केअलावा इधर उधर देखते जा रहे थे,स्त्रीपुरुष ,बच्चे-बूढे,सभी अपनी धुन में सीताराम -सीताराम कहते चले जा रहेथे,निम्न एवं मध्यम बर्ग की कतिपय महिलाएं राम जन्म ,सीता-स्वयंबर,बन-गमन, लक्ष्मण -मूर्छा , आदि काकारुणिक बर्णन लोक-संगीत के माध्यम से कर रहीं थीं उच्च तथा मध्यमोच्च बर्ग के लोग मानों.इस बात काप्रदर्शन कर रहे थे कि इतने बड़े होते हुए भी वह परिक्रमा कर रहे हैं .सब के मन में कुछ कुछ चाह थी,कामनाथी,याचना थी,तृष्णा थी,लोभ था,मोह था,राग था,द्वेष था.यह अपेक्षा उससे थी जो इससे मुक्त था
परिक्रमा वस्तुतः एक ब्यावाहारिक.बैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक ब्यवस्था है.जो भुक्ति तथा मुक्ति दोनों को लक्ष्य कर के निर्धारित कीगयी है. कार्तिक माह में मौसम में बदलाव आता है. गर्मी के बाद जाडा आता है. इसलिए कार्तिक की नवमी,एकादशी तथा पूर्णिमा को क्रमशः चौदह कोशी ,पञ्च कोशी परिक्रमा तथा पूर्णिमा-स्नान का निर्धारण किया गया है. नवमी को चौदहकोष की परिक्रमा जो लगभग ४५ किलोमीटर में है, की जाती है. यह काफी श्रमसाध्य है जिसे करने के बाद थकावट जाती है, साथ ही नंगे पांव करने के कारण लोग थक कर चूर हो जाते हैं किंतु इसे करने के बाद तितीक्षा तथा सहनशीलता में काफी बृद्धि होती है .यहाँ यह विचारणीय है कि यदि इसी पर छोड़ दिया जाय तो पैरों की क्रियाशीलता दुष्प्रभावित हो जायगी ,अतः एकादशी को पंचकोशी [जो लगभग सोलह किलोमीटर है] परिक्रमा का निर्धारण किया गया है,इसे कर लेने के बाद थकावट एकदम दूर हो जाती है .एकादशी से पूर्णिमा तक अयोध्या मेंरह कर सत्संग,भजन-पूजन,इत्यादि करते हुए पूर्णमासी को सरयू-स्नान कर तथा पूर्णतया स्वस्थ होकर लोग घरजाते हैं।
इस लौकिकता के गर्भ में एक आध्यात्मिक रहस्य छिपा है.वास्तव में कोष का अर्थ यहाँखजाना,मंजूषा,गुहा से है .चौदह कोष का अभिप्राय पञ्च कर्मेन्द्रियाँ,पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ तथा चार अन्तः करणमन,बुद्धि,चित्त तथा अंहकार से है.इसकी परिक्रमा करके यानी इसपर नियंत्रण होने के बाद ब्यक्ति पञ्च कोष केक्षेत्र में प्रबेश करता है.यह पञ्च कोष क्रमशः अन्नमयकोश,प्राणमाय कोष ,मनोमय कोष,विज्ञानमय कोष ,तथाआनंदमय कोष.है जिसे ब्यक्ति क्रमशः पार करता है और तभी पूर्णिमा-स्नान का अधिकारी होता है.पूर्णिमा काअभिप्राय पूर्ण प्रकाश,पूर्ण सूख, पूर्ण आनंद है। यह परम स्थिति है.सुखी मीन जिमी नीर अगाधा,जिमी हरि शरण एकहू बाधा . किंतु यह अयोध्या में रह कर,साधू-संन्यासी तथा सदगुरू के सानिध्य में रह कर,तथा अयोध्या केउत्तर में बहने वाली सरयू में स्नान करके ही किया जा सकता है.

Monday, December 29, 2008

जय जय श्री राधे


आज राधा के उपासना की बाढ़ सी आयी हुई है। लोग प्राय:कहते हॆ किराधा-राधा श्याम मिला दे. किंतु लोग यह नही जानते कि राधा कौन हैऔर वह किस प्रकार श्याम से मिला सकती है!
इस तथ्य को समझने के लिए हमें भगवान कृष्ण के जीवन चरित्र कोजानना होगा। शास्त्रो मे ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान कृष्ण केआठ पटरानियाँ थीं रुक्मिणी , सत्यभामा आदि भगवान की पटरानियाँहैं। श्री राधाजी की गणना उनमे नही है। वस्तुतः वह भगवान कीपराशक्ति हैं अर्थात वह कृष्ण ही है।
गीता में भगवान अपने श्रीमुख से अपनी प्रकृति का वर्णन करते हुएकहते हैं ;
भूमिरापो नलो बायुः खं मनोबुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरश्ट्धा।
बस्तुतः यही आठ प्रकृति - भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार ही आठ पटरानियां हैं जोभगवान् कृष्ण की अपरा प्रकृति है तथा जड़ है . आगे वह कहते हैं-
अपरेयं इतस्त्वन्यां प्रकृतिम बिद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।
यह जीवभूता ही भगवान की परा प्रकृति है, यही राधा है. यहाँ एक बात और समझने की है. प्रवाह को धारा कहते हैं. धारा हमेशा ऊपर से नीचे को जाती हैं.यानी जीव का इन्द्रियों और इन्द्रियों का बिषयों की ओर होने वाला प्रबाह धाराहै और जीव का ब्रह्म की ओर प्रबाहराधाहै. राधा परमात्मा की चित शक्ति हैं वह परमात्मा ही हैं. गोस्वामीतुलसीदास कहते हैं-
गिरा अर्थ जल बीचि सम कहि अस भिन्न भिन्न।
इस प्रकार दोनो एक ही हैं,अभिन्न हैं.
जय जय श्री राधे

Sunday, October 12, 2008

अहंकारविमूढात्मा कर्तेति मन्यते स्वयं

जीव ईश्वर का अंश है, वह ईश्वर ही है किंतु वह अहंकरग्रस्त होने के कारण अपने को कर्ता मान बैठा है. परिणामस्वरूप वह नाना योनियों में भटकता हुआ अनेक कष्ट भोग रहा है . लोक में यदि हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि जबतक कोई वास्तु अपने मूल से जुडी है तबतक वह शुद्ध है ,पवित्र है तथा अपने मूल से अलग होते ही वह अशुद्ध ,अपवित्र हो जाती है .हमारे सिर के बाल तथा नाखून यदि हमारे भोजन में गिर जायें तो वे अपने साथ-साथ भोजन को भी अशुद्ध ,अपवित्र कर देते हैं . आग से अलग होने पर कोयला कला हो जाता है जब की आग का रंग लाल है किंतु जिस समय कोयला पुनः आग में मिल जाता है वह लाल रंग का हो जाता है . ईश्वर अंश जीव अबिनाशी यह जीव इश्वर का अंश ही है किंतु वह अपने स्वरुप को भूला बैठा है . इसी बिस्मृति के कारण वह अशुद्ध है अपवित्र है और नाना योनियों में भटक रहा है और दुःख भोग रहा है. सतगुरु हमारे अंतःकरण में जन्मजन्मान्तर से घनीभूत अज्ञानान्धकार का भेदन कर अपने स्वरुप की स्मृति प्राप्त करा देता है और तब जीव 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' की स्थिति में आ जाता है तथा अपना स्वरुप पाकर धन्य हो जाता है और वह सभी बंधनों से मुक्त हो कर परमात्मसत्ता में विचरण करता है.. और तब 'सुखी मीन जिमि नीर अगाध ,जिमि हरि शरण न एकहू बाधा'. 
हरि ॐ तत्सत.