हरि ॐ तत्सत.
Sunday, October 12, 2008
अहंकारविमूढात्मा कर्तेति मन्यते स्वयं
जीव ईश्वर का अंश है, वह ईश्वर ही है किंतु वह अहंकरग्रस्त होने के कारण अपने को कर्ता मान बैठा है. परिणामस्वरूप वह नाना योनियों में भटकता हुआ अनेक कष्ट भोग रहा है . लोक में यदि हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि जबतक कोई वास्तु अपने मूल से जुडी है तबतक वह शुद्ध है ,पवित्र है तथा अपने मूल से अलग होते ही वह अशुद्ध ,अपवित्र हो जाती है .हमारे सिर के बाल तथा नाखून यदि हमारे भोजन में गिर जायें तो वे अपने साथ-साथ भोजन को भी अशुद्ध ,अपवित्र कर देते हैं . आग से अलग होने पर कोयला कला हो जाता है जब की आग का रंग लाल है किंतु जिस समय कोयला पुनः आग में मिल जाता है वह लाल रंग का हो जाता है . ईश्वर अंश जीव अबिनाशी यह जीव इश्वर का अंश ही है किंतु वह अपने स्वरुप को भूला बैठा है . इसी बिस्मृति के कारण वह अशुद्ध है अपवित्र है और नाना योनियों में भटक रहा है और दुःख भोग रहा है. सतगुरु हमारे अंतःकरण में जन्मजन्मान्तर से घनीभूत अज्ञानान्धकार का भेदन कर अपने स्वरुप की स्मृति प्राप्त करा देता है और तब जीव 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' की स्थिति में आ जाता है तथा अपना स्वरुप पाकर धन्य हो जाता है और वह सभी बंधनों से मुक्त हो कर परमात्मसत्ता में विचरण करता है.. और तब 'सुखी मीन जिमि नीर अगाध ,जिमि हरि शरण न एकहू बाधा'.
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