Monday, December 29, 2008
जय जय श्री राधे
आज राधा के उपासना की बाढ़ सी आयी हुई है। लोग प्राय:कहते हॆ किराधा-राधा श्याम मिला दे. किंतु लोग यह नही जानते कि राधा कौन हैऔर वह किस प्रकार श्याम से मिला सकती है!
इस तथ्य को समझने के लिए हमें भगवान कृष्ण के जीवन चरित्र कोजानना होगा। शास्त्रो मे ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान कृष्ण केआठ पटरानियाँ थीं । रुक्मिणी , सत्यभामा आदि भगवान की पटरानियाँहैं। श्री राधाजी की गणना उनमे नही है। वस्तुतः वह भगवान कीपराशक्ति हैं अर्थात वह कृष्ण ही है।
गीता में भगवान अपने श्रीमुख से अपनी प्रकृति का वर्णन करते हुएकहते हैं ;
भूमिरापो नलो बायुः खं मनोबुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरश्ट्धा।
बस्तुतः यही आठ प्रकृति - भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार ही आठ पटरानियां हैं जोभगवान् कृष्ण की अपरा प्रकृति है तथा जड़ है . आगे वह कहते हैं-
अपरेयं इतस्त्वन्यां प्रकृतिम बिद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।
यह जीवभूता ही भगवान की परा प्रकृति है, यही राधा है. यहाँ एक बात और समझने की है. प्रवाह को धारा कहते हैं. धारा हमेशा ऊपर से नीचे को जाती हैं.यानी जीव का इन्द्रियों और इन्द्रियों का बिषयों की ओर होने वाला प्रबाह धाराहै और जीव का ब्रह्म की ओर प्रबाह ’राधा’ है. राधा परमात्मा की चित शक्ति हैं वह परमात्मा ही हैं. गोस्वामीतुलसीदास कहते हैं-
गिरा अर्थ जल बीचि सम कहि अस भिन्न न भिन्न।
इस प्रकार दोनो एक ही हैं,अभिन्न हैं.
जय जय श्री राधे
Sunday, October 12, 2008
अहंकारविमूढात्मा कर्तेति मन्यते स्वयं
जीव ईश्वर का अंश है, वह ईश्वर ही है किंतु वह अहंकरग्रस्त होने के कारण अपने को कर्ता मान बैठा है. परिणामस्वरूप वह नाना योनियों में भटकता हुआ अनेक कष्ट भोग रहा है . लोक में यदि हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि जबतक कोई वास्तु अपने मूल से जुडी है तबतक वह शुद्ध है ,पवित्र है तथा अपने मूल से अलग होते ही वह अशुद्ध ,अपवित्र हो जाती है .हमारे सिर के बाल तथा नाखून यदि हमारे भोजन में गिर जायें तो वे अपने साथ-साथ भोजन को भी अशुद्ध ,अपवित्र कर देते हैं . आग से अलग होने पर कोयला कला हो जाता है जब की आग का रंग लाल है किंतु जिस समय कोयला पुनः आग में मिल जाता है वह लाल रंग का हो जाता है . ईश्वर अंश जीव अबिनाशी यह जीव इश्वर का अंश ही है किंतु वह अपने स्वरुप को भूला बैठा है . इसी बिस्मृति के कारण वह अशुद्ध है अपवित्र है और नाना योनियों में भटक रहा है और दुःख भोग रहा है. सतगुरु हमारे अंतःकरण में जन्मजन्मान्तर से घनीभूत अज्ञानान्धकार का भेदन कर अपने स्वरुप की स्मृति प्राप्त करा देता है और तब जीव 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' की स्थिति में आ जाता है तथा अपना स्वरुप पाकर धन्य हो जाता है और वह सभी बंधनों से मुक्त हो कर परमात्मसत्ता में विचरण करता है.. और तब 'सुखी मीन जिमि नीर अगाध ,जिमि हरि शरण न एकहू बाधा'.
हरि ॐ तत्सत.
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